"जिंदगी" - ना पूछा कभी पता हमने, ना कभी शिकवा-गिला किया..जिस राह को ये निकल पड़ी उस पथ को हमने पकड़ लिया;जैसी मिली बस जहा मिली..प्याले में रख के पी गए..कभी स्वाद रहा कभी नहीं मिला,बस पी गए तो पी गए; कुछ फ़िक्र नहीं कुछ आस नहीं, न कल की हमें परवाह है;
ये ज़िन्दगी मेरी ख़ास है, मेरी ज़िन्दगी बेपरवाह है;

Monday, September 27, 2010

पेशा और हमारा सामाजिक सरोकार



पत्रकारिता ...लोकतंत्र का चौथा स्तभ...आज़ादी के पहले से लेकर अब तक हमेशा से अपनी भूमिका और निष्पक्ष आवाज़ को लेकर सराहा जाने वाला पेशा .
यही सोच थी मेरे दिलो दिमाग में ...पेशा नहीं मिशन है ये...सरोकारों से जुड़ा जीविकोपार्जन का जरिया / आज भी याद आते हैं वो पल जब मैंने इससे जुड़ने का फैसला किया था...आज मेरे पास पत्रकारिता की डिग्री है, लोग बुलाते-जानते भी हैं इसी नाम से..अच्छा खासा पैसा मिलता है...जीवन की विलासिता भी उपलब्ध है पर अगर कुछ नहीं है तो बस सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, सामजिक दित्वों के प्रति कर्तव्यनिष्टता /
टीवी पत्रकारिता से जुड़ने का निर्णय किया था कभी की इस माध्यम की बहुत पहुँच है..क्या अमीर क्या गरीब, राजा से लेकर रंक तक सब इसको देखते सुनते हैं...मन में ठाना था इस इसकी बदलौत देश की तरक्की और विकास में हाथ बताऊंगा, सही और गलत के अंतर को खुलकर लोगों के सामने रखूँगा पर अफ़सोस आज लगता है की हम टीवी वाले तो एक बियाबान जंगल में हैं जहा एक रंगे सियार के हुआ हुआ करते है चारो तरफ हुआ हुआ का ही शोर होने लगता है जहा सामाजिक सरोकारों अपने दाईत्व निर्वाहन से ज्यादा ज़रूरी टीआरपी की रेटिंग पर ध्यान रखना है....खबर की सच्चाई और विश्वसनीयत से महत्वपूर्ण है सनसनी पैदा करना. मैं जनता हूँ इस पेशे से जुड़े अधिकाँश शक्श इसकी ये हालत देख खुश नहीं है...पर फिर भी जिए जा रहा है और किये जा रहा है इस मिशन का बंटाधार....दोस्तों-मित्रों मुझे पता है जब भी हम आपस में अपने सरोकारों और जिम्मेवारियों पर बात करते हैं तो मिडिया के इस हाल का दोष हम दूसरों ख़ास कर संपादकों के ऊपर डालते हैं....पर मित्रों क्या सिर्फ दोषारोपण से हम पाने दाइत्वों से मुक्ति पा सकते हैं ?
दोस्तों हम सभी को अपने स्तर पर यह तक करना पड़ेगा की हम कुछ भी गलत न लिखेंगे न बोलेंगे न दिखने के पक्षधर होंगे ....तभी सुधर पायेगा हमारा यह पेशा और बदल सकेगा फिर से मिशन में /

मीठी ज़िन्दगी और उसके चंद कडवे पल

  • खाली गुज़रते हैं अक्सर मेरे दिन ही नहीं रात भी, टकराते हैं दोनों बेवज़ह आपस में मेरे वजूद की बात पर, और मैं हँसता हूँ- की लो फिर निकला इस जंग में एक और...ख़ाली-सा- बेकार-सा एक बदरंग, बेमानी-सा...बेमान-सा दिन।

  • ‎अपनों की भीड़ में अपनों को ढूँढना...ज्यादा खोना... कम पाना.....खुद से लड़ना...आप को मारना॥ये सब ज़रूरी है...प्रवासी होना मेरी मज़बूरी है / ( अगस्त ०६/१०)

  • चल रहा है मेरा कारवॉं, बस मंजिल की तलाश है,समय के रथ पे सवार ये, थामे नहीं लगाम को भिड़ते ही जाते आँधियों से, डरते नहीं है ये वार से;हुंकार भर, निकल चले जिद को ये अपनी थाम के, गर है स्‍वर्ग कहीं तो उतार ला,ग़र जिंदा है तू अब तलक, तो जीत में बस यकीं रख। (अगस्त ०२/१०)

  • मेरी दुनिया...करोडो लोग...लाखों सपने...आधी ज़िन्दगी..इसके बचे पुरे ख्वाब..अधमुदी आँखे..तैरते सपने..सख्त धरातल और अर्धसत्य...रोज़ सवेरा..गर्म धूप...पूरी रात पर आधा चाँद...मुझे इनका पूरा हिसाब चाहिए.(मई ०२/१०)

  • आधी ज़िन्दगी का सफ़र...रिश्तों का कारवां..अपनों की भीड़...फिर भी एकाकीपन..क्या सचमुच रिश्ते ऊपर से तय होकर आते हैं ?(मई ३१/१०)

  • कुछ डूबता उतरता अक्सर दिल को डुबाता सा लगता है...साँस चलती है..फिर भी पर ये मौत का सा आभास क्यूँ है ?(मई ३१/१०)
  • आज कल मुझे "मैं" प्रश्नचिंह नज़र आता हूँ....अनगिनत सवालों से जूझता, अधकचरे-अधपके ख्यालातों से लड़ता..कभी हारता तो कभी जीतता..प्रश्नों के जवाब ढूंढते प्रश्नों से ही टकराता...प्रश्नों के मकडजाल में उलझा "प्रश्नचिन्ह"(मई २२/१०)

  • कल कुछ सवालों ने मेरा रास्ता रोका था....पूछ रहे थे मुझ से मेरी हकीक़त...क्या बताऊँ इन्हें अब मैं..गर कहूँ की एक यात्री हूँ मैं..खुद में उलझा..सपनो की दुनियां का यायावर जो अलग-अलग मजिलों को एक साथ तय करना चाहता है तो क्या ये विश्वाश करेंगे मेरी बात पर ?(मई २१/१०)

  • अक्सर मेरे सपने आशियाना तलाशते हैं ...कल अकेला जान मुझे ...उन्ही ख्वाबों ने मेरे घर पर दस्तक दी....कुछ देर रुके थे शायद...पर जब क़दमों की आहट सुन मैंने आंखे मलते दरवाज़ा खोला... देखा कोई नही था …बाहर सायं-सायं करती हवा ..धू धू कर जलती धूप थी .. अभी भी मैं बेचैन हो उन ख्वाबों को ढूंढ़ रहा हूँ...न जाने इस जलती गर्मी में कहा भटक रहे होंगे बेचारे ....(मई २०/१०)

  • सवाल तो हमेशा जवाब लिए होते हैं ॥नाहक ही बेचारे बदनाम होते हैं खुद के वजूद को लेकर ...इस दुनियां में क्या कोई ऐसा सवाल है जिसका कोई जवाब नहीं...गोया हम इंसानों की फितरत ऐसी है की अपने मतलब के लिए एक ही सवाल के अलग अलग जवाब देते रहते हैं और उस पर तुर्रा यह की उसे ही सही ठहराने की जिद भी करते हैं (मई २१/१०)